डेस्क। युद्ध के समय ब्लैकआउट एक ऐसी रणनीति रही है, जो दुश्मन के हमलों को विफल करने में कारगर मानी जाती है। इसका मकसद होता है कि दुश्मन के विमानों या पनडुब्बियों को किसी भी रोशनी के जरिए निशाना तय करने में कठिनाई हो। विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान यह रणनीति बड़े पैमाने पर अपनाई गई थी।
ब्लैकआउट के तहत कृत्रिम रोशनी को पूरी तरह नियंत्रित किया जाता था। घरों की खिड़कियों को मोटे कपड़ों से ढंका जाता, दुकानों और फैक्ट्रियों में रोशनी कम कर दी जाती और सड़क लाइटें बंद कर दी जाती थीं। वाहनों की हेडलाइट्स पर काले मास्क लगाए जाते या उन्हें सिर्फ नीचे की तरफ रोशनी करने की इजाजत दी जाती थी, ताकि दूर से कोई चमक नजर न आए। ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में ब्लैकआउट को लेकर बेहद सख्त नियम बनाए गए थे। इन नियमों का उल्लंघन करने पर जुर्माना और सज़ा तक दी जाती थी। हालांकि यह रणनीति सैन्य दृष्टिकोण से जरूरी थी, लेकिन नागरिकों के लिए यह किसी चुनौती से कम नहीं थी।
सड़कों पर अंधेरे के कारण दुर्घटनाएं बढ़ गईं, खासकर रात के समय पैदल चलने वालों और साइकिल सवारों के लिए जोखिम कई गुना बढ़ गया। बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह समय और भी कठिन था। बावजूद इसके, ब्लैकआउट ने कई बार दुश्मन के हमलों को असफल करने में अहम भूमिका निभाई।
आज भी युद्ध की स्थिति में ब्लैकआउट जैसे अभ्यास की याद ताजा की जाती है, ताकि देश हर परिस्थिति के लिए तैयार रहे। भारत ने पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है। गुरुवार 8 मई की रात लाहौर में देर रात कई जगह ड्रोन हमले भारतीय सेना ने किए। पीओके में भारतीय सेना ने आतंकी कैंप नष्ट किए। डिफेंस सिस्टम ने पाक के हमलों को नाकाम कर दिया। भारत के हमलों से दहला पाकिस्तान।